- राजु कुमार
इन तमाम मुश्किलों के बावजूद, इन बस्तियों की महिलाएं हार नहीं मानतीं। वे अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं, सामूहिक रूप से आवाज उठा रही हैं और बदलाव की उम्मीद को जिंदा रख रही हैं। महिला दिवस सिर्फ एक दिन के लिए महिलाओं की उपलब्धियों का जश्न मनाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि यह दिन उन अनगिनत महिलाओं की आवाज उठाने का अवसर होना चाहिए जो हर दिन संघर्ष कर रही हैं।
साल 2025 का 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस तेजी से कार्रवाई करें' की थीम के साथ हमें याद दिलाता है कि महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में तत्काल और प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है। शहरी बस्तियों में रहने वाली महिलाएं अपने अधिकारों, सुरक्षा और सपनों के लिए संघर्षरत हैं, लेकिन वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति और समाज एवं परिवार की बेरुखी उनके जीवन को ज्यादा कठिन बना देती है। बड़े महानगरों सहित मेट्रो सिटी के रूप में विस्तार पा चुकी शहरी बस्तियों में रहने वाली महिलाओं की जिंदगी की सच्चाई को अगर करीब से देखा जाए, तो यह साफ हो जाता है कि उनकी समस्याएं केवल गरीबी और संसाधनों की कमी तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह असमानता, भेदभाव, पलायन और सामाजिक एवं राजनीतिक उपेक्षा की गहरी जड़ों से भी जुड़ी हुई हैं। ऐसी स्थिति में, साल 2025 का अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 'तेजी से कार्रवाई करें' की थीम के साथ हमें याद दिलाता है कि महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में तत्काल और प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है।
शहरी बस्तियों की अधिकांश आबादी ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन करके आती है। छोटे शहरों एवं राज्यों की राजधानियों की कमोबेश यही स्थिति है। महानगरों में पलायन गांवों के साथ-साथ छोटे शहरों से भी होता है। पिछले कुछ दशकों में ग्रामीण एवं छोटे शहरों में रोजगार के अभाव ने पलायन को तेज किया है। गांवों में आज भी छुआछूत है, जिसकी वजह से दलित समुदाय पलायन कर शहरी बस्तियों में आ रहा है। इसलिए बस्तियों की कुल आबादी में एक बड़ा हिस्सा दलित एवं आदिवासी समुदायों का होता है। कुछ परिवार अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए शहरों का रुख करते हैं। यह सिलसिला दशकों से चल रहा है, जिसकी वजह से शहरी बस्तियों में रहने वाले परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी के साथ-साथ हाल के वर्षों में आए परिवार भी हैं। इन बस्तियों में रह रहे बहुत कम परिवार हैं, जो अपनी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को बेहतर कर कॉलोनियों की तरफ चले गए। अधिकांश परिवार इन्हीं बस्तियों में स्थायी रूप से रहने लगे हैं। इन बस्तियों में पानी की किल्लत, शौचालयों की कमी, सुरक्षित सार्वजनिक स्थानों का अभाव, स्वास्थ्य एवं शिक्षा का अभाव जैसे कई गंभीर मुद्दे हैं। महिलाएं इन समस्याओं से सबसे ज्यादा जूझ रही हैं। इनकी वजह से उनके जीवन पर नकारात्मक असर पड़ता है।
शहरी बस्तियों में हाल ही में पलायन करके आए परिवारों और वर्षों से रहने वाले परिवारों के बीच भी अक्सर सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्ष देखने को मिलता है। विभिन्न राज्यों और भाषाई पृष्ठभूमियों से आने वाले परिवारों के बीच संसाधनों को लेकर टकराव, परंपराओं और जीवनशैली में मतभेद की वजह से अक्सर असहमति और तनाव उत्पन्न होते हैं। इस संघर्ष का सबसे अधिक बोझ महिलाओं को उठाना पड़ता है, क्योंकि उन्हें ही पारिवारिक समायोजन और सामाजिक मेलजोल को बनाए रखने की जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। कई बार नई बस्तियों में हाल ही में आई महिलाएं स्थानीय भाषा न जानने के कारण सरकारी योजनाओं और समुदाय आधारित सहायता समूहों तक नहीं पहुंच पातीं, जिससे वे और भी ज्यादा हाशिए पर चली जाती हैं।
आर्थिक संकटों से जूझ रहे इन परिवारों की महिलाएं घरेलू कामगार, सफाई कर्मचारी, छोटे-मोटे कारीगर या असंगठित क्षेत्र की मजदूर होती हैं, जो घर एवं बाहर दोनों ही जगहों पर समस्याओं से जूझ रही हैं। कई महिलाएं घर से दूर काम करने जाती हैं, लेकिन उनके लिए सार्वजनिक परिवहन में सुरक्षा एक बड़ी चिंता का विषय बनी रहती है। कार्यस्थल पर महिलाओं को अक्सर असभ्य व्यवहार का सामना करना पड़ता है। रात के समय इन बस्तियों की गलियां अंधेरे में डूबी रहती हैं, जिससे महिलाओं के लिए घर लौटना खतरे से खाली नहीं होता। शहरी विस्थापन के कारण शहर से दूर फेंक दिए जाने के कारण यह संकट और गहरा हो जाता है। महिलाओं के लिए सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर रोजगार से जुड़े कई प्रशिक्षण दिए जाते हैं, लेकिन उसका कोई फायदा उन्हें नहीं मिल पाता। एक तो बस्ती में स्वरोजगार के अवसर सीमित हैं, दूसरी बात यह कि वे कहीं अन्य जगह जाकर स्वरोजगार कर पाने में असमर्थ होती हैं।
बस्ती की ज्यादातर महिलाएं अक्सर अपने स्वास्थ्य और पोषण की अनदेखी कर देती हैं। अधिकांश बस्तियों में सुबह चार बजे उठकर पानी भरने के लिए लंबी कतारों में खड़ा होना महिलाओं की दिनचर्या का हिस्सा है। उनके पास इतना समय ही नहीं बचता कि वे अपने लिए कुछ सोच सकें। बस्ती में स्वास्थ्य सुविधाएं सीमित हैं, और जब कभी वे बीमार पड़ती हैं, तो सरकारी अस्पतालों की भीड़ और लापरवाही उनके लिए एक नई समस्या बन जाती है। शहरी बस्तियों में महिलाओं के लिए शिक्षा भी एक बड़ी चुनौती है। कई लड़कियां किशोरावस्था में ही स्कूल छोड़ देती हैं क्योंकि उनके घरवालों को लगता है कि पढ़ाई की बजाय घर का काम करना और छोटे भाई-बहनों की देखभाल करना ज्यादा जरूरी है। इसके साथ ही बालिकाओं की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है। कई बालिकाएं घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए कम उम्र से ही मां के साथ काम पर जाने लगती हैं।
इसके अलावा, घरेलू हिंसा इन बस्तियों की महिलाओं के लिए एक और गंभीर समस्या है। पुलिस में शिकायत दर्ज कराना आसान नहीं होता और अगर कोई महिला हिम्मत करके शिकायत कर भी देती है, तो समाज और परिवार का दबाव उसे वापस उसी प्रताड़ना भरी जिंदगी में धकेल देता है। कई महिलाओं को यह भी नहीं पता होता कि उनके लिए कानूनी मदद और सहायता समूह उपलब्ध हैं। इन बस्तियों के पुरुषों में शराब एवं जुए की लत एक आम समस्या है, जिसकी वजह से महिलाओं को घर चलाने के लिए कमाना भी पड़ता है, घर का काम भी करना पड़ता है और पति की प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती है।
सुरक्षित सामुदायिक शौचालयों की कमी भी महिलाओं की समस्याओं को बढ़ा देती है। कॉलोनी की कई महिलाओं को खुले में शौच जाने को मजबूर होना पड़ता है, जिससे वे कई बार यौन हिंसा की शिकार भी हो जाती हैं। कई बार शौचालयों की दूरी इतनी होती है कि महिलाएं रातभर खुद को रोकने की कोशिश करती हैं, जिससे उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है।
इन तमाम मुश्किलों के बावजूद, इन बस्तियों की महिलाएं हार नहीं मानतीं। वे अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं, सामूहिक रूप से आवाज उठा रही हैं और बदलाव की उम्मीद को जिंदा रख रही हैं। महिला दिवस सिर्फ एक दिन के लिए महिलाओं की उपलब्धियों का जश्न मनाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि यह दिन उन अनगिनत महिलाओं की आवाज उठाने का अवसर होना चाहिए जो हर दिन संघर्ष कर रही हैं। 2025 की थीम हमें यह याद दिलाती है कि अब समय तेजी से कदम उठाने का है, ताकि प्रत्येक महिला को वह अधिकार, सुरक्षा और अवसर मिल सके, जिसकी वह हकदार है।